Friday, May 25, 2018

घर वापसी ( भाग -२ "तनहा है खुद तन्हाई ")


भाग-२  "तनहा है खुद तन्हाई "









भाग- १ यहाँ पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_99.html 












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रात हो चली.... मगर आँखों में नींद नहीं।  आज ४ दिन हो गए इसी तरह।



 दिमाग के घोड़े चल चल के थक गए हैं... शायद।



३ साल हो गए यहाँ मुझे, अम्माजी के यहाँ ... मगर कोई पैसे दे के तन्हाई भर गया, ये अजीब वाक़या पहले कभी नहीं हुआ...



लोग तो इन बंद चारदीवारों में खुद के बोझिल होते मन को   किसी और के जिस्म पे लादने भर आते।  आखिर क्यों?



मेरे दिमाग में इतने सवाल, पर कोई जवाब नहीं।  शायद आज नींद भी नहीं आएगी।  बिस्तर भी काट रहा ... बैठ के खिड़की से खाली आसमान ही देख लेती हूँ।



"दीदी
... सो जाओ ना ... अम्माजी गुस्सा करेंगी अगर सुबह आँखें सूजी हुई देखी
उन्होंने ... "



वीना के खर्राटे शुरू हो चुके थे ... और मैं.... शायद मेरी
आँखें खुल चुकी थी।





ज़िन्दगी कितनी अजीब है ना ... जब सब देती है तो अकल पे पत्थर पड़ जाते हैं और....  जब सब समझ आ जाए तब तक हाथ बंध चुके होते हैं।



अतीत की परछाईयाँ उस हिलते परदे के पीछे से लुका- छिपी खेलने लगी। 



काश
उस दिन मैं, यूँही गुस्से में घर से न निकली होती ....  काश मैं उस अजनबी पे
भरोसा ना करती..... मेरा  पर्स चोरी होने पे मैं आखिर करती भी क्या?



 वापस
घर आने के लिए, अगर उस इंसान की मदद न लेती...  तो शायद इस अंधी खाई में आज
नहीं होती मैं।  न जाने क्या सूंघा दिया था उसने मुझे उस चलती गाड़ी में, कि जब होश आया तो मेरी दुनिया ही पलट चुकी थी।






रत्नेश
को भी क्या खबर कि  मैं घर से निकली हूँ.... वापस कब आऊंगी। पर क्या
उनहोने मुझे ढूंढा भी? आँखों से टपकते आंसू ,यहाँ किसी की परवाह को ताकते
हैं, पर शायद यहाँ मेरा कोई अपना है ही नहीं।






रात गुजरने को है शायद.... शायद!


















शाम
गहराने वाली हो गयी.... बारिश अगस्त के महीने को भिगोने वाली होती है। 
रत्नेश ऑफिस से आ चुके।  अपने बेटे पुनीत के अलावा कोई और अब नज़र भी नहीं
आता उनको। मेरी तरफ तो तभी देखेंगे, जब पुनीत सो जायेगा.... मन्नतों के बाद
के बच्चे सिर-आँखों पे बैठाये जाते हैं।



 "कभी मेरा भी पूछ लिया करो रत्नेश ....  मैं भी इसी घर में रहती हूँ !", मैंने नाराज़गी जताते हुए कहा। 



"अरे
मैडम ! बच्चे को पापा चाहिए  ... अभी उसका टाइम...  आप १० बजे के बाद
मिलिए... आपकी अपॉइंटमेंट फिक्स है। " हँसते हुए वो कह गए।





"अभी हूँ ना
तुम्हारे पास.... इसीलिए इतरा रहे हो... किसी दिन जब मैं तुमसे दूर हो जाउंगी ना .... तरसोगे मुझे देखने को जब, तब पूछूँगी की अपॉइंटमेंट लोगे या दोगे ?",
मैं गुस्से में कहती हुई किचन में जा घुसी।



"अवनि ओ अवनि.... "मेरा नाम पुकारती आवाज़ ने मेरे ख्यालों की गाड़ी को रोक दिया। 





"तेरा वो ... आ गया ... अरे वही , उस दिन वाला .... चाय वाला !" बुलबुल खिड़की से चिढ़ाती हुई बोली।



"आज
तू ही निबट उससे ... देख मेरा कि मैं यहाँ हूँ , बताने की ज़रूरत नहीं ,ठीक है ?" बोलते ही जो मैं पलटी, तो उस अजनबी को मेरे पीछे ही खड़ा पाया।  मेरी हालत 'काटो तो खून नहीं'
जैसी हो गयी, उसे अचानक से देख के।



"अच्छा? तो तुम यहाँ नहीं हो क्या?" , लबों पे मुस्कान लिए,खुद के बालों में हाथ फेरता हुआ वह बोला।



"चाय ??? अभी लाती हूँ। ", कह के मैं भाग पड़ी।



बुलबुल को दूसरे कमरे के सामने पा के, उसकी चोटी अच्छे से खींची मैंने।



"कम से कम बोल ही देती कि महापुरुष मेरे पीछे ही खड़ा है ... अरे इशारा ही कर देती ....तेरे भेजे में अकाल पड़ गया था क्या? "



"ओह्ह्ह... इतना गुस्सा मत करो दीदी, चाय भी तुम्हारे आगे ठंडी लगेगी। " बुलबुल छेड़ती हुई पानी भरने लगी।



  चाय बनाते- बनाते मन में कुछ ख्याल आया ... नाम क्या बताया था इसने अपना ? बताया भी था? शायद नहीं। पूछ लूँ क्या? ना ...



कमरे में पहुंच के देखती हूँ तो, वो खिड़की से बाहर कुछ देखने में मसरूफ है।



"सोचती ही रहोगी कि चाय भी दोगी ?", ख्यालों से निकलता हुआ वो बोला।    






"हाँ, दे रही हूँ।" हाथ में कप लिए मैं बोली।






                  शायद चाय के तरह हमारी मुलाक़ात भी थोड़ी और मीठी हो रही थी





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Saturday, May 19, 2018

घर वापसी ( भाग - १ "सब बिकता है")


 भाग - १  "सब बिकता है"




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ज़िन्दगी न जाने किस क़र्ज़
का ब्याज मांग रही है? कुछ देर तन्हाई भी नहीं मिलती और... एक नयी सुबह रात की
तरह आँखों -आँखों में गुज़र जाती है।



अम्मा एक नया ग्राहक लायी हैं। मुझे उसे खुश करने का कह गयी.





आईना भी जैसे बेपर्दा होके, मेरे जिस्म पे पिछली रात के रिसते हुए ज़ख्मों पे हँस रहा हो।



"
ये क्या? मांग सूनी क्यों राखी तुमने? और गला.... अरे मंगलसूत्र पहना करो
न!  इस तरह सादी मत रहा करो। " रत्नेश की आवाज़ कानो में घुल रही थी।



बिख़री
यादों की अलमारी कभी सवरती  नहीं।  उनपे चढ़ी धूल कभी धुंधली नहीं होती।



ज़ोर की आवाज़ ने मेरी यादों की अलमारी आखिर कब बंद करवा दी पता ही न चला।



"दीदी दरवाज़ा खोलो... अम्माजी बोली बस आधा घंटा और... तैयार हो गयी क्या? दीदी?" वीना बाहर  दरवाज़ा फोड़ रही थी।




" बस हो ही गयी ... सुनना ... कुछ खाने को ला दे।  भूख लग आयी। ", मैं कह के गुसलखाने में तौलिये संग चल पड़ी।



ये बदनाम गली न जाने कितने नाम वालों को बाहें खोल बुला रही है ... "



बदनाम???"



एकाएक  मेरी हँसी फूट पड़ी।






तैयार
होकर, कुछ फ़ीकी सी मुस्कान लिए, फटाफट नाश्ता ठूस ही रही थी कि... लगा
जैसे कोई मुझे घूर रहा है।  आँखों के कोनो से देखा तो मालूम पड़ा कि सच में,
एक जोड़ी आँखें मुझे दरवाज़े के उस पार से निहार रही हैं।  खुद को पकड़ा हुआ
महसूस कर,वो मुस्कुराता हुआ अंदर आ पहुँचा और कुर्सी पे बैठते  हुए बोला
," आराम से खा लो... मुझे कोई जल्दी नहीं। "






पहली बार किसी ने इतना इत्मीनान दिखाया।





"चाय पिएंगे?" मैंने पूछ लिया।





"हाँ ! तुम बनाओगी ?" ज़वाब के साथ एक और सवाल उसने मेरी तरफ भेज दिया।





अतीत
के गलियारे से इक आवाज़ कानो में तफरी करने लगी... अवनि... चाय पिलाओ
ज़रा........ हाँ अपने हाथों की ! सुगनी से मत बनवाना। " रत्नेश फ़िर आज
गूँज रहा था...




"अभी
लाती हूँ... ", मैं उठ के बाहर आ गयी। पहली बार किसी ने गुज़ारिश की यहाँ
... इस जगह, जहाँ हर कोई कुछ देर गुज़ारने आता और मेरा सब कुछ ले जाता।





सोचते-
सोचते चाय उबल गयी, कप में भरते ही अतीत की खिड़की से रत्नेश की आवाज़ आयी,"
अवनि ... इलाइची डाली कि नहीं?" और मुँह से निकल पड़ा खुद-ब-खुद .... हाँ
डाली है।






जाते ही चाय मेज़ पे रख, मैं उस अजनबी के चेहरे को देखने लगी...



सुर्र-
सुर्र की आवाज़ कर, वो रत्नेश जैसे ही चाय की चुस्कियाँ भर रहा था ... मेरे
मुस्कुराने पे, झल्लाये बिना ही वो पूछ बैठा," इत्ती अच्छी बनाती हो... चाय
की टपरी ही खोल लेती... इस गलत काम में पड़ने की क्या ज़रूरत थी?"



मेरा कोई जवाब न पाकर, वो मेरे पास आ पहुँचा।




"किस्मत
ख़राब थी मेरी... इससे ज़्यादा क्या कह सकती हूँ मैं... भरा-पूरा  घर था मेरा ,
पति , बच्चा, बस एक पल के गुस्से ने सब बर्बाद कर दिया। पर आपको इससे कोई
मतलब नही... अपना काम करो और निकलो !"



मेरी जहन्नुम सी ज़िन्दगी का
दुःख- दर्द और तक़लीफ़ गुस्से में फूट पड़ा।  मुँह फेर, उससे दूर... मैं खुद को शांत करने
की कोशिश में आँखें बंद कर पाषाण्ड सी खड़ी रही।



कुछ
पल कोई आवाज़ नहीं आयी ... फिर कानों के पास हलकी की ख़ुशनू महसूस होने
लगी।  आँखें खोल देखा ,तो उस अजनबी को अपने करीब पाया। कुछ देर क लिए मैं
झेंप सी गयी।



"तुम सच में बहुत सुन्दर हो... क्या किसी ने तुम्हे बताया कभी? " वो अचानक से बोल पड़ा.



" हाँ ! पता है.,... तभी तो आप जैसे यहाँ तशरीफ़ लाते हैं। वरना हमसे कोई और क्या काम आपको!" गुस्सा उबलने लगा मेरा।



" तुम्हे जानने की हसरत है... पाने की नहीं। " शायराना लहज़े में कह के, वो कुर्सी पे जा बैठ गया।



अजीब इंसान है।  कभी ऐसा हुआ ही नहीं, कि कोई इतने पास आ के दूर गया हो।  समझ ही नहीं आ रहा कि हो क्या रहा है।




"आपके पैसे ख़राब हो जायेंगे। " मैंने याद दिलाया।



वो मुस्कुराता हुआ बैठ मुझे देखता रहा।



"सुनो... मुझे अंदाजा है, कि तुम्हे यहाँ ज़बरदस्ती रखा गया है। तुम चाहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ.... बोलो !" उसने अपनापन जताते हुए कहा।



"किस्मत से लड़ के कुछ नहीं होता साहेब...जहाँ जितनी लिखी है, इंसान को वहीं आना पड़ता है। "मैं सर झुका के बोली।








खुला
दरवाज़ा देख वीना आ गयी और मज़ाकिया लहज़े में जानने की कोशिश करने लगी, कि
दरवाज़ा बंद क्यों नहीं हुआ अब तक।  मुझे इशारा कर वो वहाँ से निकल
गयी...








आखिर पैसों में ही तो सब कुछ बिकता है... इंसान, इज़्ज़त ... सब कुछ !





image: www.exemplore.com





Friday, May 18, 2018

कब तक रूठोगे भला?









दस बार उठे होंगे हाथ तुम्हे कुछ लिखने को,

पर दिल थम जाता है तेरा नाम ही लिखते... सुन रहे हो!



कोई लफ्ज़ लिखा जाता नहीं, स्याही शर्मा सी जाती है,

कागज़ को भी जैसे गुदगुदी हो जाती है.



हँस लेती हूँ सोच के तुम क्या आगे कहोगे?

मेरी नादानियों पे थोड़ा तंज़ कुछ तो कसोगे.



फ़ोन इक तरफ रख के ज़ोर से हँस लेती हूँ,

कुछ दिन और यूँ रूठी हुई रह लेती हूँ.



दो बार तो तुमसे फ़िर मुड़ मुलाक़ात की है,

इस तीसरी बार थोड़ा इत्मिनान रख लेती हूँ.



इस ख़ामोशी में तेरी जली-कटी फिर सुनलेती हूँ,

क्या करुँ ... तेरी बेरुख़ी सह लेती हूँ.



कुछ सुनने से सुनाना भला?

अरे कहो भी कुछ... कब तक रूठोगे भला?







Image:www.123RF.com







Monday, April 30, 2018

To be a Queen...

















I was brought up as a princess... and you know what that means?





It means, that I had all of my wishes come true... or to say ... all were made true by my dad.





I was handed over to a king... because a queen is said to belong to a king and not to anyone less.





So... I became a Queen!





A queen, infamous of required action, because my king was the ruler...and I, mere a spectator. But the reigns soon fell into my hands, when the king lost his life... and I had to become the king, inspite of being the rumoured- inefficient queen.





I bore no child so the kingdom was nevertheless my own family... they were my children and I their mother and this is what I assumed and failed miserably at.





Lost in the cascade of battles, I was torn like a piece of cloth and sold like meat. The buyer was...ofcourse a king and, I a hopeless slave.











I was held captive...not even given the status of a royal in prison but... a slave to whom the king could keep... as a war prisoner.








Life was never a burden before... but now it seemed so...as each night called upon me innumerable times...the merciless beast ate me, each hour until sunrise.







My shivering accompanied by the moans were not that of pleasure...But the pain endured by the piercing reality, that Queens are never Queens beyond their territory; and the only territory they have doesn't even include their own body, but the soul that is held captive... until it decides to leave the world...







Image: www.pinterest.com


Friday, April 27, 2018

The unfamiliar...











What do you think I want in all this?


Practically speaking... I want all.








The all you have... as You.








I have heard people in love when they leave.... they leave a lot of themselves back in others...








Their ideologies....their way of talking...their specific and special terms of the language that they use and ofcourse how they used to respond to in any condition ....








They leave a part of themselves in the people they love and that is what makes it hard to forget them...because they seep into your DNA and become hard to part with...








I don't want  parts of me in you... I want to see you in you... I want to see how different you are...how different from me...how unique you are.


I dont want the familiar side of you...I wanna see the unfamiliar...you..








 To mean... I want to learn you by your soul's fire.... I wanna embrace the unfamiliar you.











Image : www.datingcanvas.com


Monday, April 23, 2018

When clouds become flock of sheep...























When clouds become flock of sheep...


Your thoughts become fallen leaves...


I dream about a weird tree...


That is never green...







When dew drops load their weight on nights...


Struggling to dilute as lights arise...


Forming crystals of silver on broken leaves...


Shining like diamonds bright.






Unwrapped day in buds of blue...


Turning pots of uncooked stew...


Flames of heat simmering then...


To cook all day long then.







Propelled by the rising Sun...


Increasing heights till up it hung...


Then slowly sliding towards the end...


In cool waters laying far at end.







The night dilutes its blue black ink


Letting those trapped fireflies twinkle


As the breeze sighs every now and then


The moon stands still in masked silence.







Dreams emerge like ghosts


Entering the sleeping corpses


Touching their quiet hollowness


Filling with sounds of forgotten voices.







When clouds become flock of sheep...


Entering the borderless skies


Your dreams they bring and take


Across my uncountable nights.







Image www.123RF.com









Saturday, April 21, 2018

Crawling shadows...











I never knew how past would again and again torment me...the little child in me stays awake. Wanting someone to hold my hand and say," it's ok...am with you." 





The shadows howl at me, singing crazy songs of childhood lullabies; keeping me awake. I fight with my mind to sleep. Lights blind me, disclosing the faces of known ones...my own ones playing with me... destroying my joy of childhood.





Am alone in this body...no one to hear but me the screams of my helplessness...am alone to survive the pain and agony which I am unable to comprehend and produce the same in written words or spoken. But trust me...am dying each day with the guilt of something, that I haven't done but being the victim of which has been more tormenting...





It's like seeing myself each night...fighting to survive the hallucination... fighting to survive the death of my childhood... 





Am fighting to slow down growing...to be an adult...to understand the vanished phase between my childhood and youth. 





Am not what they made me...I am me. Not a victim of the doings of their's. Am not the left over...


Am not eatable to be stale with time.


Am not a survivor of the abuse ...but half victorious. 


My only victory is that I didn't give up on living.


But partly am dead...as I should have been completely ... after the blackout of my life's horrific day.


The shallow shadow of me on the ground crawls like a helpless earthworm. What else can a woman feel about herself?





Image : www.scarymommy.com











Life is a withering winter

 When people ask me... do I still remember you? I go in a trance, my lips hold a smile and my eyes are visible with tears about to fall. I r...