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Wednesday, February 7, 2018

कोरा कागज़...














मैं इक ज़िद्दी कोरे कागज़ की तरह, तुम्हे रोज़ चिढ़ाती हूँ... और तुम रोज़, मुझे नीले रंग से सजाने की कोशिश में लगे रहते हो।

क्यों भूल जाते हो, कि तुम्हारे हज़ार अल्फ़ाज़ लिखने के बावजूद मेरे अंदर का ये खालीपन भरेगा नहीं!





लफ़्ज़ों के बीच से मेरा कोरापन हमेशा झांकता ही रहेगा ... तुम जितनी भी कोशिश कर लो...कहीं ना कहीं तुम नाकाम ही रहोगे।



सारे ज़माने के अल्फ़ाज़ कम पड़ जाएंगे मेरे इस खालीपन को भरने में।  मेरा ये खालीपन, मेरी ख़ामोशी शायद तुम्हारी हँसी की मुरीद हो चुकी है.... इसीलिए तो, रोज़ तुम्हे पहले पन्ने से खुली आँखों से निहारती रहती हूँ... तुम्हारी कलम का मुझपे एहसास, मुझे बदरंग कर देता है।







और शायद तुम्हे भी ये एहसास होता ही होगा... जब तुम कलम टिकाने ही लगते हो, मैं झट से ज़ुल्फ़ों की तरह, पन्ना फेर देती हूँ... और उस पल्टे हुए पन्ने को देख, तुम्हारी खीझ पे मुझे हँसी सी आ जाती है...



माथे की शिकन बताती है, कि मैं तुम्हे कितना परेशान कर देती हूँ ...और तुम किसी छोटे बच्चे की तरह रूठ से जाते हो... झट से कलम वापस रख, तपाक से मुझे इस किताब की देहलीज़ के अंदर बंद कर देते हो।





शायद। ...  यूँ कैदखाने में इस कोरे कागज़ का रह जाना ,  कोई बड़ी बात नहीं तुम्हारे लिए... तुम तो हर मुमकिन कोशिश करते हो, मुझ पर कोई हसीन इबादत या अफसाना लिखने का पर, मेरी किस्मत कोरी ही है....

मेरा खालीपन मुझे अब अपना सा लगने लगा है... हर पन्ने के शुरू और अंत में वह हमेशा दिखता ही रहेगा....

चाहे तुम कितने भी रंग भर लो ... और ये लफ़्ज़ों के बीच से मेरा कोरापन झाँकना  करेगा ... कभी नहीं !!!



इमेज : nybookeditors.com







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 When people ask me... do I still remember you? I go in a trance, my lips hold a smile and my eyes are visible with tears about to fall. I r...