दस बार उठे होंगे हाथ तुम्हे कुछ लिखने को,
पर दिल थम जाता है तेरा नाम ही लिखते... सुन रहे हो!
कोई लफ्ज़ लिखा जाता नहीं, स्याही शर्मा सी जाती है,
कागज़ को भी जैसे गुदगुदी हो जाती है.
हँस लेती हूँ सोच के तुम क्या आगे कहोगे?
मेरी नादानियों पे थोड़ा तंज़ कुछ तो कसोगे.
फ़ोन इक तरफ रख के ज़ोर से हँस लेती हूँ,
कुछ दिन और यूँ रूठी हुई रह लेती हूँ.
दो बार तो तुमसे फ़िर मुड़ मुलाक़ात की है,
इस तीसरी बार थोड़ा इत्मिनान रख लेती हूँ.
इस ख़ामोशी में तेरी जली-कटी फिर सुनलेती हूँ,
क्या करुँ ... तेरी बेरुख़ी सह लेती हूँ.
कुछ सुनने से सुनाना भला?
अरे कहो भी कुछ... कब तक रूठोगे भला?
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