भाग-२ "तनहा है खुद तन्हाई "
भाग- १ यहाँ पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_99.html
रात हो चली.... मगर आँखों में नींद नहीं। आज ४ दिन हो गए इसी तरह।
दिमाग के घोड़े चल चल के थक गए हैं... शायद।
३ साल हो गए यहाँ मुझे, अम्माजी के यहाँ ... मगर कोई पैसे दे के तन्हाई भर गया, ये अजीब वाक़या पहले कभी नहीं हुआ...
लोग तो इन बंद चारदीवारों में खुद के बोझिल होते मन को किसी और के जिस्म पे लादने भर आते। आखिर क्यों?
मेरे दिमाग में इतने सवाल, पर कोई जवाब नहीं। शायद आज नींद भी नहीं आएगी। बिस्तर भी काट रहा ... बैठ के खिड़की से खाली आसमान ही देख लेती हूँ।
"दीदी
... सो जाओ ना ... अम्माजी गुस्सा करेंगी अगर सुबह आँखें सूजी हुई देखी
उन्होंने ... "
वीना के खर्राटे शुरू हो चुके थे ... और मैं.... शायद मेरी
आँखें खुल चुकी थी।
ज़िन्दगी कितनी अजीब है ना ... जब सब देती है तो अकल पे पत्थर पड़ जाते हैं और.... जब सब समझ आ जाए तब तक हाथ बंध चुके होते हैं।
अतीत की परछाईयाँ उस हिलते परदे के पीछे से लुका- छिपी खेलने लगी।
काश
उस दिन मैं, यूँही गुस्से में घर से न निकली होती .... काश मैं उस अजनबी पे
भरोसा ना करती..... मेरा पर्स चोरी होने पे मैं आखिर करती भी क्या?
वापस
घर आने के लिए, अगर उस इंसान की मदद न लेती... तो शायद इस अंधी खाई में आज
नहीं होती मैं। न जाने क्या सूंघा दिया था उसने मुझे उस चलती गाड़ी में, कि जब होश आया तो मेरी दुनिया ही पलट चुकी थी।
रत्नेश
को भी क्या खबर कि मैं घर से निकली हूँ.... वापस कब आऊंगी। पर क्या
उनहोने मुझे ढूंढा भी? आँखों से टपकते आंसू ,यहाँ किसी की परवाह को ताकते
हैं, पर शायद यहाँ मेरा कोई अपना है ही नहीं।
रात गुजरने को है शायद.... शायद!
शाम
गहराने वाली हो गयी.... बारिश अगस्त के महीने को भिगोने वाली होती है।
रत्नेश ऑफिस से आ चुके। अपने बेटे पुनीत के अलावा कोई और अब नज़र भी नहीं
आता उनको। मेरी तरफ तो तभी देखेंगे, जब पुनीत सो जायेगा.... मन्नतों के बाद
के बच्चे सिर-आँखों पे बैठाये जाते हैं।
"कभी मेरा भी पूछ लिया करो रत्नेश .... मैं भी इसी घर में रहती हूँ !", मैंने नाराज़गी जताते हुए कहा।
"अरे
मैडम ! बच्चे को पापा चाहिए ... अभी उसका टाइम... आप १० बजे के बाद
मिलिए... आपकी अपॉइंटमेंट फिक्स है। " हँसते हुए वो कह गए।
"अभी हूँ ना
तुम्हारे पास.... इसीलिए इतरा रहे हो... किसी दिन जब मैं तुमसे दूर हो जाउंगी ना .... तरसोगे मुझे देखने को जब, तब पूछूँगी की अपॉइंटमेंट लोगे या दोगे ?",
मैं गुस्से में कहती हुई किचन में जा घुसी।
"अवनि ओ अवनि.... "मेरा नाम पुकारती आवाज़ ने मेरे ख्यालों की गाड़ी को रोक दिया।
"तेरा वो ... आ गया ... अरे वही , उस दिन वाला .... चाय वाला !" बुलबुल खिड़की से चिढ़ाती हुई बोली।
"आज
तू ही निबट उससे ... देख मेरा कि मैं यहाँ हूँ , बताने की ज़रूरत नहीं ,ठीक है ?" बोलते ही जो मैं पलटी, तो उस अजनबी को मेरे पीछे ही खड़ा पाया। मेरी हालत 'काटो तो खून नहीं'
जैसी हो गयी, उसे अचानक से देख के।
"अच्छा? तो तुम यहाँ नहीं हो क्या?" , लबों पे मुस्कान लिए,खुद के बालों में हाथ फेरता हुआ वह बोला।
"चाय ??? अभी लाती हूँ। ", कह के मैं भाग पड़ी।
बुलबुल को दूसरे कमरे के सामने पा के, उसकी चोटी अच्छे से खींची मैंने।
"कम से कम बोल ही देती कि महापुरुष मेरे पीछे ही खड़ा है ... अरे इशारा ही कर देती ....तेरे भेजे में अकाल पड़ गया था क्या? "
"ओह्ह्ह... इतना गुस्सा मत करो दीदी, चाय भी तुम्हारे आगे ठंडी लगेगी। " बुलबुल छेड़ती हुई पानी भरने लगी।
चाय बनाते- बनाते मन में कुछ ख्याल आया ... नाम क्या बताया था इसने अपना ? बताया भी था? शायद नहीं। पूछ लूँ क्या? ना ...
कमरे में पहुंच के देखती हूँ तो, वो खिड़की से बाहर कुछ देखने में मसरूफ है।
"सोचती ही रहोगी कि चाय भी दोगी ?", ख्यालों से निकलता हुआ वो बोला।
"हाँ, दे रही हूँ।" हाथ में कप लिए मैं बोली।
शायद चाय के तरह हमारी मुलाक़ात भी थोड़ी और मीठी हो रही थी
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