तरसते हैं पत्ते ,
शाखों से गिर के ,
ज़मीं पे हवाएँ ,
ऐसे झुलायें।
कभी इस दिशा में ,
कभी उस दिशा में।
झड़ते है ऐसे,
पतझड़ हो जैसे।
कभी आसमानों से.…
बातें थे करते....
सुरमई सी शामें ,
सुनेहरी दोपहरें। …
झड़ते-ऐ-दामन ,
वो पत्तों की टहनी। ....
वो चादर हरी सी ,
आज सूखी है ऐसे
ज़मीं पर है पत्ता ...
और नज़रें उन्हीं पे।
वो हँसते हैं ऐसे.…
ना आँसू गमी के।
हम रोते हैं अपनी …
किस्मत पे आखिर।
जुदाई है ऐसी,…
हमेशा की सर्दी।
वो तरसता पत्ता ,
शाख़ों से गिरकर।
गिरकर ,बिछड़कर ,
है रोता सिकुड़कर।
हवा उसको रोले …
पाँव उसको कुचले …
मगर फिर भी गाता …
वो अपंना तराना।