मैंने सुना है तुम मर चुके हो...
ऊपर से कट चके हो,
नीचे से गल चुके हो.
हवा से रूठके,
साँसें लेना भूल चुके हो,
सुना है, तुम मर चुके हो.
धूप में झुलस के,
छाँव में कहीं छुप चुके हो,
सुना है कि, तुम मर चुके हो.
करवटों में नींदें खो के,
ख़यालों में मुड़ चुके हो,
सुना है, शायद तुम मर चुके हो.
क्यों इतना बदल चुके हो?
तड़पते हो, या तड़प चुके हो,
पर सुना है, तुम मर चुके हो.
कोई क़फ़न खरीदा है?
या दूसरों पे ही, ये भी काम छोड़ा है,
सुना तो है, कि तुम मर चुके हो.
दफ़ा करो अब इन यादों को,
इनमें रखा ही क्या है!
हाँ, पर सुना है कि तुम मर चुके हो.
क्यों तुम्हें याद करुँ?
आख़िर दिया ही क्या है तुमने मुझे?
पर सच है क्या ...कि तुम मर चुके हो?
ये ख़ामोशी अब सहन से बाहर है,
कुछ कह ही दो.... यही कि सब झूठ है...
कि तुम मर चुके हो.
शायद ये ख़याल सबका बेक़ार है,
तुम मर गए, फिर भी कहीं ज़िंदा हो,
सुनती हूँ रोज़ यही कि तुम मर चुके हो.
यक़ीन होता नहीं,
फिर भी रोज़ पूछती हूँ,
क्या सचमुच तुम मर चुके हो?
लोग हँसते हैं मेरे पूछने पे,
कहते है शायद तुम ज़िंदा हो,
रो देती हूँ जब कोई मज़ाक बना देता है,
तुम्हे ज़िंदा, मुझे मार के कहता है कि ...
सबको पता है, तुम मर चुके हो!!!
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