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Thursday, May 31, 2018

घर वापसी (भाग ४ -" ख़ामोशी का तूफ़ान")


भाग ४ -" ख़ामोशी का तूफ़ान



भाग- १ यहाँ पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_99.html 

भाग -२ यहां पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_25.html

भाग ३ यहां पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_72.html















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दिन बीत गए... वो नहीं आया।  आया तो मेरी बला से ... मुझे क्या?  और
हज़ारों हैं यहाँ आने वाले... पौधों को पानी देती-देती बड़बड़ा रही थी मैं।







गीले
बालों में तौलिया लपेटे हुए... बारिश के मौसम की धूप का मज़ा ले ही रही थी,
कि अफ़रातफ़री मच गयी। बुलबुल चहकती हुई वीना के कान में कुछ फुसफुसा रही थी।  वैसे भी उसे
काम ही क्या !







"दीदी... वो आ गया फिर। " हौले से मेरे कान में बताने को वीना  दबे पाँव पहुंची थी।







"तो
!!! मैं क्या करूँ?  जा के बोल दे उसे और अम्माजी से ... किसी और को भेज दें
उसके स्वागत में, मुझे माफ़ करें ", मैं गुस्से में वीना से बोली।







"हाँ
तो तुम्हे कौन मिलने आएगा ... नकचढ़ी लड़की! यहाँ जिसके ऊपर हाथ रखदूँ
ना...पैसे निकाल के... खुद वो मेरे पैरों  में गिरेगी ", कैलाश के तीखे शब्द
मेरे कानों को भेद रहे थे।







  गुस्से में उठती हुई मैं अपने कमरे की तरफ जाने ही लगी थी कि, कैलाश मेरा रास्ता रोके खड़ा हो गया।









"वैसे गुस्से में गज़ब लगती हो... पता है तुम्हे। " शायद उसका ड्रामा चालू हो गया।









 कैलाश
का हाथ मेरे सर पर बंधे तौलिये की तरफ बढ़ा। लिपटे बालों को तौलिए संग ही
पकड़, वो मुझे कमरे की तरफ खींचने लगा। पूरे रास्ते मैं उसका हाथ  झटकती रही,
पर उसने हाथ नहीं हटाया।ला के कमरे में तौलिया फ़ेंक, टेबल पे पड़े जग का
सारा पानी मेरे सिर पे उढ़ेल दिया उसने।









"ये क्या किया तुमने !!! ईशहहहहह !",  मैं चिल्ला पड़ी।







"तुम्हारा गुस्सा ठंडा कर रहा हूँ।  मैंने किया ही क्या जो इतना चिढ़ रही हो।  बोलो!!!", दरवाज़ा बंद करता हुआ वो बोला।







फ़र्श
पे पड़ा तौलिया लेने मैं लपकी ही थी कि, कैलाश के हाथ से वो दूर जा सरका।
ये खेल शायद कुछ ज़्यादा ही लम्बा खिंचने  लगा है।  मैं जैसे ही तौलिये तक पहुँचती , वो उसे कमरे के दूसरे तरफ फ़ेंक देता। आख़िरकार , मैं अलमारी से
दूसरे किसी दुसरे कपड़े से बालों को सुखाने लगी। मुझे ऐसा करते देख, गुस्से
में उसने तौलिआ मेरे मुँह पे फ़ेंक मारा।







"तुम्हारे
बाल ऐसे खुले ही अच्छे लगते ... सुनो इन्हे बाँधा मत करो। और पानी झटकाते
वक़्त तो..." , कैलाश के शब्द मेरे अतीत के पत्थर से टकराने लगे।








"कितनी बार कहा न तुमको... मुझे नींद से जगाने को ये गीली ज़ुल्फ़ें  मत झटका करो अवनि ... मुझे बिलकुल पसंद नहीं ..." ,तौलिये के अंधेरे में रत्नेश की आवाज़ फिर मेरे कानो में गूंजी।







"सुना ... मैंने क्या कहा !!!", कैलाश मेरे हाथ पकड़ बोला।







"हहह ? हाँ, अभी लाती हूँ चाय ," मैं कमरे का दरवाज़ा खोल बाहर आ गयी।







वो हैरान सा मुझे जाता देख सिर पकड़ बैठ गया।







आज अपनी चाय भी साथ ले जाती हूँ... ये भीगा सिर , ठंडा कर गया। पहुँचते
ही चाय रख मैंने एक कप उसकी  तरफ बढ़ा दिया। जैसे ही मेरे लबों ने कप को
छुआ, कैलाश ने मेरा कप मेरे हाथ से खींच लिया। मुझे घूरता हुआ वो सारी चाय
पी गया एक दम से।अब मुझे उसपे बहुत गुस्सा आ रहा था।  मेरा गुस्सा देख
उसने अपना कप आगे बढ़ा दिया।









" ये लो, जूठी नहीं की
मैंने ... पर तुम्हारी वाली बड़ी मीठी थी ",सुनके एक चाँटा उसके गाल पे
चिपकाने का मन कर रहा था मेरा। पर हाथ कप की तरफ न जाने क्यों बढ़ गए  और मैंने कप की
सारी चाय पी ली।







"वैसे तुम गुस्सा बहुत करती हो ... यहां टिक कैसे गयी , ये हैरानी की बात है। " वह फिर छेड़ते हुए बोला।









मैंने कोई जवाब देना ठीक नहीं समझा।  जितना बोलूंगी , उसने और कुछ ना कुछ बात छेड़ देनी है। इसलिए चुप ही रहना बेहतर है।









"कुछ
कहना था तुमसे ... तुमसे मिलके एक न बात तो पता चली कि तुम यहां अपनी
मर्ज़ी से नहीं हो। तुम अपने पति और बच्चे को मिलना नहीं चाहती क्या? उनकी
याद तो आती होगी। .. दिल नहीं करता क्या तुम्हारा उनसे मिलने को ?"






"हाँ
... मेरा बेटा अब ८ साल का हो गया होगा। ख्वाहिश तो है पर अब ये मुमकिन
नहीं है कैलाश बाबू।मेरे से जुड़ी बातों को ना छेड़ो तो हम दोनों के लिए
अच्छा है। " मैं दोनों कप उठा के बाहर की तरफ की तरफ चल पड़ी। 









"मगर मैं तुम्हारे बारे में सब जानना चाहता हूँ। शायद मैं ही तुम्हे उनसे मिलवा सकू।  भरोसा तो करो। ", कैलकाश अपना दाँव खेल गया।









"भरोसा
ही तो खा गया मुझे कैलाश बाबू ... इस भरोसे के कारण ही यहाँ इस कंजरख़ाने
में पड़ी हुई हूँ। अब डर लगता है किसी पे भी भरोसा करने से। " मैं पलट के
बोली।








"तुम्हे
देख के न जाने कितने सवाल मेरे ज़ेहन में उठते हैं। और उस दिन जिस तरह
तुमने अपने परिवार का ज़िक्र किया, मुझे यही लगा की तुम किसी अच्छे घर की
लड़की हो। यहां ज़बरदस्ती ...... देखो जब इतना बुरा हो ही चुका , अब इससे
बुरा भला होगा? मुझे तो पैसे दे के कोई भी मिल जाती, तुम मिली पर फिर भी मैं तुम्हे सुनना
चाहता हूँ। क्या ये वजह भरोसे के क़ाबिल नहीं?"  कैलाश अपनी बात पे अड़
गया।








"कुछ
पल की ख़ामोशी तूफ़ान के आने का इशारा होता है... अच्छा होगा इस तूफ़ान के बाद
जो बचा है, उसे समेट लें.... वही बहुत है। " मैं दरवाज़े से बाहर आ चुकी
थी।










समझ
नहीं आ रहा मुझे... आज की हकीकत को अपना लूूँ या पुराने दिन के ख्यालों  को 
... पर बात तो एक ही है।  पर कैलाश क्यों कर रहा है ये सब ... क्यों ???






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Tuesday, May 29, 2018

घर वापसी (भाग ३ "छुपे आंसूँ ")


भाग ३  "छुपे आंसूँ "





भाग- १ यहाँ पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_99.html 

भाग -२ यहां पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_25.html





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"आज भी पैसे बर्बाद करने आये हो?", मैं उसे छेड़ते हुए बोली।





"कुछ पुछूँ तो बताओगी?  उस दिन की तरह मूर्ति तो नहीं हो जाओगी?", कप रखते हुए, वो मेरी नक़ल उतारता हुआ बोला।





देखते
ही मेरा लबों से हँसी फ़ूट पड़ी।  इतना हँसी इतना हँसी कि आँखें आंसुओं से
भर गयी। मेरा हँसना कब रोने में बदल गया, मुझे भी पता न चला।





और कब उसके कंधे पे मेरा सिर और उसकी बाहें मुझसे लिपटी.... नहीं पता।  बस दरवाज़े को बंद करता, इक ज़ोर से धड़ाम की आवाज़ ने  हमे चौंका दिया। और अम्माजी बाहर से चिल्लाती हुुई निकली, "कम- से- कम ई दरवज्जा लगाय लेना था , चिटकनी नहीं का ... "





झट से उससे बाहें छुड़ा, मैं कमरे के दुसरे ओर जा पहुंची।





आज ये शाम  भी न जाने, कब दफ़ा होगी। खीझ सी होने लगी है इस बंद कमरे में।







"मेरा नाम नहीं पूछा तुमने अब तक। सोचा खुद ही बता दूँ। मेरा नाम कैलाश है। तुम्हारा क्या है?" ये बड़ा अजीब तरीका जान- पहचान  का।





" रिद्धिमा। " मैंने झट्ट से बताया।



"रिद्धिमा ? तो वो लड़की तुम्हे अवनि क्यों बुला रही थी?,"  उसने अपना शक ज़ाहिर किया।





"हाँ , रिद्धिमा ही है... अवनि तो.... " मैं कहते कहते चुप हो गयी।



.

"वैसे
तुम्हारा असली नाम अवनि ही है ... हैं न ?" मुझे आज ही तुम्हारा असली नाम
पता लगा, जब तुम मुझे उससे निपटवाने का बोल रही थी। " शायद अब छेड़ने की
बारी उसकी थी।





"वो... अच्छा ... ह्म्म्मं " कुछ सूझ  ही नहीं रहा था कि क्या बोलूँ।  याद कर शर्म सी आ रही थी।





"तुम यहाँ कब से हो? ", वो एकाएक  पूछ बैठा।





"माफ़ करना, अम्माजी ने मना किया है बताने को। ", मैंने उसे वहीं रोक दिया, उसी के सवालों में।





"तो
उस दिन .... उस दिन क्या हो गया था तुम्हे? तुम्हारा पति ... तुम्हारा
बच्चा ... उस दिन क्यों इस अजनबी को बताया था तुमने ? उस दिन किसने पूछा था
तुमसे ? बोलो !!!", वो मेरे पास आ मुझे झिंझोड़ते हुए पूछने लगा।




"तुम्हे
मुझसे क्या?  २ या ३ घंटे के लिए किराए पे मिली हूँ तुम्हे ... तुम्हे
मेरी गुज़री ज़िन्दगी से क्या? बताऊँ  भी, तो क्या कर लोगे तुम ? ३ सालों में
कुछ नहीं कर पायी मैं ... तुम  क्या करलोगे ? ",मैंने उसकी बाहों को खुद
पर से ज़ोर से झटक दिया।





मेरा सब्र गुस्सा बन
के फूट पड़ा।  आँखों के आंसू उसे नहीं दिखाना चाहती थी मैं। ... सो फिर
पाषाण बन खड़ी रही।  आँख खुली तो वो जा चुका था।






 अम्माजी भागी- भागी मेरे कमरे की तरफ आ रही थी, न जाने क्या हुआ आज, कि वो सकपकायी सी लग रही थी। 




"अवनि.... का कहा तूने उस छोरे को? जल्दी निकल लिया वो ... बोला कल फिर आएगा।  अच्छा मुर्गा फांसा री  तूने.... ", उनकी बातों  में पैसे मिलने की ख़ुशी ज़्यादा दिख रही थी।





"मगर मैं नहीं मिलना चाहती उसे दोबारा ... मना कर देना आप।  कह देना मैं भाग गयी यहां से। " मैं खीझ के बोली और अंदर आ के दरवाज़ा बंद कर लिया।









अम्माजी हैरान- परेशान बुलबुल से मामला पता करने चली गयी।







शाम बीत चुकी थी... बारिश भी तेज़ हो गयी...मेरी ज़िन्दगी की बारिश भी तो नहीं रुकी पिछले ३ सालों से...शायद ये ही रुक जाए।





image:www.pexels.com


Life is a withering winter

 When people ask me... do I still remember you? I go in a trance, my lips hold a smile and my eyes are visible with tears about to fall. I r...