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Wednesday, June 13, 2018

घर वापसी (भाग ५ "उम्मीद का तोहफा")


घर वापसी  (भाग ५  "उम्मीद का तोहफा")




भाग- १ यहाँ पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_99.html 

भाग -२ यहां पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_25.html

भाग ३ यहां पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_72.html

भाग ४ यहाँ पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_27.html



















उस दिन तो कैलाश चला गया, पर उसका ये कहना कि वह मुझे इस दल-दल से निकालना चाहता है, कुछ देर के लिए अच्छा लगा सुनके। शायद मैं अपने परिवार के पास चली जाउंगी।पर ये सब इतना आसान नहीं जितना लगता है।







३ साल के इस सफर ने मुझे कितना पत्थर बना दिया , ये मुझे ही पता है। वो पहला दिन भी याद है मुझे, जब यहाँ लायी गयी थी.... धोखे से ! और फिर ज़ोर- ज़बरदस्ती से तिल-तिल कर के मारी गयी रोज़, तक तक...  जब तक कि इस पिंजरे के दरवाज़े खुले होने पे भी मैं यहाँ से भागने की कोशिश न कर सकूँ। 













अपना घर , परिवार छोड़ चुकी औरत पे तो हर कोई हक़ समझता है।सड़क पे होते हर उस शर्मनाक हादसे में औरत जीते- जी मरती है ... कुछ तो ये समाज उसकी ज़िन्दगी दुश्वार कर देता है और कुछ अपने ही लोग....







और यहाँ ....  चंद पैसों में एक औरत किराए पे बिक जाती है, जैसे की कोई ज़ेवर हो... रात भर जी भर क पहनो , चमको और सुबह फ़ेंक दो।







             आखिर औरत मेहफ़ूज़ है तो है कहाँ? 








खुद के औरत होने पे गुस्सा आ रहा है... और इन मर्दों पे थूकने का दिल करने का होता ! ये औरत को बाज़ारू बना गए।  घर में अपने नाम का पट्टा पहना कर और यहां बाजार में.... पैसों के टुकड़ों पे !









हवस खुद की  , पर बदनाम औरत ही होगी। क्या ये मर्द यहाँ मजबूरी में आते? मगर ये तो यहां आ कर भी पाक ! साफ़.... पवित्र ! और औरत..... उसका क्या?









गुस्से में धुले हुए कपड़े निचोड़ते हुए इतना ज़ोर लगा दिया की कलाईयाँ ही दुखने लगी मेरी।







बुलबुल घूरे जा रही थी ,"दीदी. ... किसी और का गुस्सा कपड़ों पे तो न उतारो .... फट गए तो अम्माजी बहुत गुस्सा होंगी। "







"अच्छा-अच्छा ... ले ! जा रस्सी पे डाल आ , और सुन ! आते वक़्त एक प्याली चाय ले आना, समझी ... !!!", मैं उठती हुई बोली।







"एक नहीं,२ लाइयो बुलबुल.... वो साहेब भी आ गए ... ", वीना आँख मारते हुए बोली।








"उफ्फ्फ्फ़ !!! ये तो आफत हो गयी मेरी। " फुसफुसाते हुए मैं बोली।







कमरे में जाता हुआ कैलाश मुझे भीतर आने का इशारा कर रहा था ....






                           तूफ़ान अब शायद दूर नहीं










उठते हुए कपड़े  ठीक करके , मैं कमरे में जा पहुँची ... हैवानों से डर अब नहीं लगता... पता  नहीं इस मेमने से क्यों लगता। पता नहीं दिमाग में क्या चल रहा इसके?

जैसे ही कमरे में पहुँची तो बिस्तर पे एक तोहफा  देख  हक्की-बक्की रह गई मैं।









"तुम्हारे लिए। ... सोचा हर बार खाली हाथ जाता हूँ... इस बार कुछ लेता हुआ जाऊ। ", कुर्सी पे बैठा कैलाश, कमेंटरी दे रहा था।









"क्यों कर रहे हो ये सब? इस.... इसकी ज़रूरत नहीं , तुम्हे जो चाहिए करो और जल्दी से निकलो यहां से...", मैंने कंधे से साड़ी का पल्लू गिरा दिया।









"मैं तुम्हे यहां से निकालना चाहता हूँ ... समझी तुम !!! "



 कहता हुआ उसने मेरा पल्लू ओढ़ा दिया मुझी पे। उसकी आँखों में इतना गुस्सा पहले नहीं देखा था मैंने।










"अगले हफ्ते ५ तारीख को.... पुलिस के साथ आऊंगा , तुम्हे यहां से निकालने।  अपनी अम्माजी को बताया तो मार डालेगी तुम्हे। उसे बस पैसा चाहिए। उसे तुमसे कोई लेना देना नहीं...  तुम सिर्फ उसकी कमाई का ज़रिया हो।  कल आऊँ, तो चाय चाहिए, तुम्हारे हाथों की।  सुना तुमने???", कह के वह गुस्से में चला गया।





Image : www.ego-alterego.com

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 When people ask me... do I still remember you? I go in a trance, my lips hold a smile and my eyes are visible with tears about to fall. I r...