आज फिर ट्रेन में बैठी हूँ। और फिर वो मन्ज़र आँखों के सामने है .....
ट्रेन की धधक धधक। …ओर वो गाना गुनगुनाते हुआ उसका आना .... पहले इधर उधर सीट ढूँढना और फिर ख़फ़ा सा हो के आगे की साइड लोअर सीट पे उसका बैठ जाना .... वहाँ से छुप छुप के देखना और आँखें मिलते ही मुस्कुराना ....
आज भी कितना याद आता है....... तुम्हारा वो आँखों ही आँखों में बात कह जाना ....
फिर मिलेंगे क्या ? हर लम्हा यही सवाल मेरे ज़ेहन में आना ….. ना जाने कब तक, हम एक दुसरे को दूर से, अजनबियों की तरह देखते रहेंगे .......
"ऋचा ..... कहाँ खो गयी हो ?"
"नहीं यहीं हूँ.… बोलिए ना क्या हुआ ? " मैं ठिठक के पति देव से बातें करती हूँ और उन बीते पलों को थोड़े वक़्त के लिए दरकिनार करती हूँ।
अजीब होता है मन .... जब लग जाए, तो लगता ही नहीं और न लगे, तो कहाँ लगता है?
इस बात को आज 2 साल हो गये। 2 साल पहले यूँही अगस्त में , बारिश से बचने के लिए ट्रेन में चढ़ गई , अपनी सहेलियों के साथ। जाना कहीं नहीं पर चढ़ गयी .... सोचा चेन खींच दूँ और उतर जाऊँ .... पर हिम्मत ही नहीं हुई....
भोपाल से हबीबगंज ज़्यादा दूर नहीं , पर वहाँ से कोई ज़रिया भी नहीं कि घर पहुंचु। दूर तक चल के जाना पड़ता है, तब जा के कोई ऑटो मिलता है, पर इन सहेलियों और बारिश....दोनों ने आज मुझे कहाँ फंसा दिया ...... माँ भी वक़्त देख रही होगी, कि अभी तक मैं घर नहीं पहुंची। कहीं टीसी आ गया तो ? टिकट भी तो नहीं मेरे पास ... अब क्या? ये लड़कियाँ तो पास ले के चलती हैं ..... सोच के घबरा रही थी कि सामने से ..... वो गुनगुनाता हुआ सा एक चेहरा दिखा..... हँसता हुआ , जैसे बारिश की झम झम उसे खुश कर रही हो।
सहेलियों के साथ तो मैं बैठ गयी, पर ध्यान खिड़की के बाहर ही था, कि कब हबीबगंज आये और मैं जल्दी से उतर जाऊँ। खिड़की की तरफ जब भी आँखें जाएँ, तो वो शक्स, अगली साइड लोअर सीट से, मुझे टकटकी लगाता हुआ दिखे। कभी डर लगे तो, कभी गुस्सा आये पर उसके चेहरे पे, एक शान्ति सी बनी रही, एक मध्धम सी मुस्कान लिए वो , थोड़ी थोड़ी देर में अपना सिर एक तरफ से दूसरी तरफ करता रहा।
सहेलियों के ठहाके सुनते सुनते हबीबगंज आ गया और मै ट्रेन से उतरने के लिए दरवाज़े तक चल पड़ी ..... जैसे ही ब्रेक लगी, मैं ट्रैन से गिरते गिरते बची…… आधी ऊपर, आधी नीचे दरवाज़े से … पीछे देखा तो वही शक्स मेरा हाथ थामे , मुझे ऊपर खीच रहा था।
ट्रेन प्लेटफार्म पर रुक चुकी थी अब ..... उस शक्स को शुक्रिया कर के मैं उतर गयी .... देखा तो वो भी वहीं उतर गया .... ऑटो पकड़ के मैं घर आ गयी। माँ ने इतना डांटा कि आज लेट क्यों हो गयी तो सारा हाल बयां करा और उस के बाद और डांट खायी की सहेलियों के चक्कर में ट्रैन मत चढ़ो और चढ़ी ही तो उतरते हुए ख़याल रखना था।
कभी इस तरह सोचा ही नहीं की ट्रैन का सफर ,मेरे जीवन की डगर ही बदल देगा…....
"ऋचा ??? कहाँ खो गई... ? अच्छा , मैं ज़रा नीचे प्लेटफार्म पे जा रहा हूँ , चाय पियोगी ?" उन्होंने पूछा तो मैंने हामी भरदी ..... पर आँखें तो उस आगे की साइड लोअर सीट पे ही जमी हुई थी,जहाँ आज कोई नहीं था .... लेकिन दिल के एक कोने में वो सीट आज भी उसकी मौजूदगी दर्ज किये हुए थी।
इधर - उधर देखती हूँ तो फिर पुरानी यादें घेर रही हैं , जैसे पुरानी सहेलियाँ हो। कॉलेज का वो फिर एक दिन , जब मैं स्टेशन से ट्रेन को देख रही थी ... बारिश तो जा चुकी थी मगर, फिर भी आज बारिश हो जाये, दिल यही दुआ कर रहा था। आज जा के सहेलियों के साथ बैठ गयी और बातें करने में पता ही नहीं चला कि एक जोड़ी आंखें, मुझे कब से उस साइड लोअर सीट से देख रहीं हैं।
आज मुस्कुराते हुए ..... उसने सर झुका के आँखें बंद कर ली …… जैसे कि कहना चाहता हो कि आज आ ही गयी .... एक अजीब सा सुकून ..... मैं खुद ही मुस्कुरा उठी।
"ऋचा , चाय लो ……… अरे ! क्या सोच रही हो...... चाय पकड़ो....... " झल्लाते हुए ये मुझे चाय दे रहे थे , किस तरह वक़्त बीत जाता है, पता ही नहीं चलता … एक ही पल में कितने घंटे, कितने दिन, महीने और साल जी लेता है ..... ये बेलगाम दिल .... चंचल सा और.....
"ऋचा !!! चाय ठंडी हो रही है , पी तो लो " अब इसमें , चाय का भी क्या दोष? दोष तो …… नादान दिल का होता है , जो परिंदे की तरह.... उड़ता चला जाता है .....
ट्रेन का इंजन बदल रहा है, इसलिए आधा घंटा ट्रेन खड़ी रही, आते जाते बिस्कुट,मूँगफली और नाश्ता बेचने वालों की आवाज़ों में जैसे मेरी आवाज़ कहीं खो रही है ...... ट्रेन चली तो जान में जान आई, चलती हुई उसकी मधुर सी आवाज़ ....... ये सो गए हैं …… मगर मेरी नज़र उस साइड लोअर सीट पे ही अटकी पड़ी है। फिर ख्यालों की ट्रेन चल पड़ी है,और मैं दो साल पहले ट्रेन में पहुंच गयी …… सहेलियों के साथ। छोटा सा सफर , मगर उसके आने से जैसे एक पल में ही ज़िन्दगी सिमट सी गयी हो …… ,आज आया नहीं वो, पता नहीं क्या हुआ ? सोच ही रही थी कि, बगल से आवाज़ आई ,"एक्सक्यूज़ मी ! आपका दुपटटा पैरों में जा रहा है ....." मुड़के देखा तो वही था...... मुस्कान लिए हुए, हौले से सिर झुका के पलकें झपकाके वो उसी आगे की साइड लोअर सीट पे बैठ गया ..... और मुझे देखता हुआ मुस्कुराने लगा।
अब तो रोज़ कॉलेज से घर यूही ट्रेन से बीच का रास्ता तय होता , सिर्फ उसकी मुस्कान को देखने के लिए ....... मगर आज वो आया ही नहीं , सारे रस्ते मैं उस सीट को ही देखती रही , जैसे की आँखें..... "ऋचा ???सो जाओ …… सारी रात बैठी रहोगी क्या ? कल नौ -दस बजे तक अम्बाले पहुंचेंगे....... लंबा सफर है, थक जाओगी। फिर उस के बाद बस का भी तो सफर है, सो जाओ। "इनकी आवाज़ ने मुझे मेरी भूली हुई गलियों से वापस खींच लिया।
अप्पर सीट है मेरी, लेट गयी पर, नींद नहीं आ रही..... अब वो सीट भी नज़र नहीं आ रही ...... बेचैनी है...... उठके दूसरी तरफ सिर कर के लेट गयी......जैसे उस सीट को ही देखने की ज़िद्द हो दिल को। फिर ख्यालों की लहरें ,मुझे वापस समुन्दर में बहा के ले जा रही हैं....
आज नहीं जाउंगी ट्रेन में....... रोज़ देर हो जाती है....... माँ भी डांट लगाती है…… और वजह भी क्या हो मेरी ट्रेन में जाने की...... अब दिल से ही लड़े जा रही हूँ। प्लेटफार्म पर खुद से ही जवाबतलब कर रही हूँ। ओहह !!! ट्रेन चल पड़ी...... अरे !!! अब क्या? ट्रेन तो निकल गयी...... अब तो और वक़्त लगेगा घर पहुंचने में ....... मुँह बना के रह गयी मैं …… हैं ???ये क्या? ट्रेन रुक कैसे गयी? किसी ने शायद चेन खींच दी …लोग आपस में बोल रहे हैं …कोई नीचे रह गया शायद, किसी ने चेन खींच दी।
चलो मैं ट्रेन में चढ़ गयी, सहेलियाँ हँस रही हैं। "कहाँ थी? देख तेरे कारण उसने चेन खींच दी आज……" वो खड़ा मुझे देख रहा है … जैसे शिक़न हो उसके माथे पे…… एक ख्वाइश उस के भी दिल मे…… मुझसे मिलने की। पसीना पोंछते हुए , मैं बैठ गयी अपनी सीट पे और वो....... अपनी साइड लोअर पे..........
"टीसी....... टिकट दिखाईये " अब ये टीसी भी … मुझे आज हर कोई इस तरह …… इनको जगाया ,टिकट दिखाई और अब फिर, लाइट बुझी, सब पैसेंजर अपनी चद्दरों में सो गए, लेकिन मैं आधे घंटे बाद भी यूही लेटी हुई बीते दिनों को दोबारा से जैसे देख रही हूँ , जी रही हूँ....
कभी उसका नाम भी नहीं पूछा , न उसने मेरा, जैसे हम एक दूसरे को वक़्त के पहले से जानते हो ....... मगर आज सोच रही हूँ कि…कैसे पूछूँ ? कितना अजीब लगेगा ....... एक लड़की इस तरह…… सोचते हुए मैं ट्रेन में चढ़ी........ वो मेरे आगे ही था, मैंने देखा नहीं और हमारी टक्कर हो गयी …… वो हँसता हुआ बोला,"अरे मैडम, देख भी लीजिये आगे …… " हाथ बढ़ा के बोला,"आपका नाम ऋचा है ना ?" अचरच से मैं उसे देखती रही कि उसे कैसे पता .......आगे चलती हुई सहेली मीरा जीभ चिढ़ा रही थी मुझे , उसी की कारिस्तानी होगी.......मगर अब क्या ? "मेरा नाम तरुन है, बी ई कर रहा हूँ , कॉलेज से घर जाता हूँ इसी ट्रेन से."
घर पहुंची और माँ और पापा की डांट पड़ी , इम्तेहान थे ,सो तैयारी में जुट गयी , मगर माँ को जाने क्या ख़याल आया कि अगले ही दिन भैया को मुझे कॉलेज से लाने को कह दिया। ट्रेन का रूटीन कही ख्वाब ही बन के रह गया.......
इम्तेहान खत्म होने को है, आखिरी साल था बी ऐ का,अब तो शायद इस ट्रेन में चढ़ने का मौका भी ना मिले, सोच रही थी कि भैया का फ़ोन आया ,"मुझे कहीं जाना है ज़रूरी , आज तुम खुद आ जाना घर." जैसे कि मन्नत पूरी हो गयी हो। आज आखिरी बार उसे देख लूँ , बस…… बस!
ट्रेन में चढ़ी, पर वो आज आया नहीं, शायद मैं इतने दिन आई नहीं इसलिए,सोचते हुए मैंने हथेलियों को अपने चेहरे पर रख लिया, जब हाथ हटाये तो........ वो उस सीट पे बैठा मुस्कुरा रहा था। आज के बाद शायद उससे न मिल पाउंगी, …… यही सोच कर उसको देख रही थी, मगर ये क्या …… उसने मुझे आँख मारी , और अचानक से मैं ज़ोर से हँस पड़ी। मगर अगले ही पल , आँखों ने हँसी को धोखा दे दिया और झर झर करते हुए आँसू बहने लगे। स्टेशन आ गया था, अपना बैग उठा के मैं दूसरे दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ी, उसका हैरान सा चेहरा , मुझे घूर रहा था , फिर ऐसा लगा, मानो वो मेरे पीछे आ रहा था…… मगर मैं कैसे पीछे मुड़के देखती …… बस आगे ही आगे तेज़ चलती रही, साथ में बस आँसू थे .....
आँखें गीली हो गयी मेरी …… अचानक से ख़याल आया की मैं ट्रैन में हूँ, सवेरा होने वाला है…थोड़ा सो जाऊं , नहीं तो, ये पूछेंगे कि आँखें सूजी क्यों हैं, सोयी क्यों नहीं।
"ऋचा…… दो घंटे और, बस अम्बाला पहुंचने ही वाले हैं।उस के बाद बस में और फिर घर……" ये मुझे बता रहे थे। पता ही नहीं चला, वक़्त कैसे निकल गया …… सफर के बाद वापस घर और फिर वही रोज़ के काम। हिचकोले खाते हुए , फिर मन पहुंच गया उसी साइड लोअर सीट पे…… एक शक्स बैठा हुआ मुझे ही देख रहा था…। उसको देख के अचानक से दिल रुक सा गया.…… वो तरुन ही था…। आँखें नम थी, मगर ख़ुशी से या ग़म से, पता नहीं …… आंसुओं को छुपाती हुई, मैं वॉशरूम की तरफ चल पड़ी। दरवाज़े के पास खड़ी हो के, आती जाती हवा को मेहसूस करते हुए, उन दो बूंद आंसुओं को समेटने लगी .......
वक़्त कैसे गुज़र जाता है…मगर हम वहीँ ठहर से जाते हैं , पिंजरे में कैद किसी पंछी की तरह.……