इक घुटन सी,
आँसुओं में है टपकती।
हर बूँद खुद को जला,
पिघलती और सुलगती।
आँखों ही आँखों में ,
कुछ वो कहती और रोती।
मगर खुद के ग़म में ,
रहती वो सिसकती और पिघलती।
जली जा रही है ,
रोती , सुबकती।
शाम ढलते ही ,
आवाज़ आए कहीं से।
जला दो ये (मोम )बत्ती ,
अँधेरा बड़ा है।
जल जल के करती ,
गम ये पार करने।
कि दरिया भी मैं हूँ
किनारा भी मैं हूँ।
और ये बिचारी ,
कश्ती भी मैं हूँ।
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