Thursday, May 31, 2018

घर वापसी (भाग ४ -" ख़ामोशी का तूफ़ान")


भाग ४ -" ख़ामोशी का तूफ़ान



भाग- १ यहाँ पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_99.html 

भाग -२ यहां पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_25.html

भाग ३ यहां पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_72.html















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दिन बीत गए... वो नहीं आया।  आया तो मेरी बला से ... मुझे क्या?  और
हज़ारों हैं यहाँ आने वाले... पौधों को पानी देती-देती बड़बड़ा रही थी मैं।







गीले
बालों में तौलिया लपेटे हुए... बारिश के मौसम की धूप का मज़ा ले ही रही थी,
कि अफ़रातफ़री मच गयी। बुलबुल चहकती हुई वीना के कान में कुछ फुसफुसा रही थी।  वैसे भी उसे
काम ही क्या !







"दीदी... वो आ गया फिर। " हौले से मेरे कान में बताने को वीना  दबे पाँव पहुंची थी।







"तो
!!! मैं क्या करूँ?  जा के बोल दे उसे और अम्माजी से ... किसी और को भेज दें
उसके स्वागत में, मुझे माफ़ करें ", मैं गुस्से में वीना से बोली।







"हाँ
तो तुम्हे कौन मिलने आएगा ... नकचढ़ी लड़की! यहाँ जिसके ऊपर हाथ रखदूँ
ना...पैसे निकाल के... खुद वो मेरे पैरों  में गिरेगी ", कैलाश के तीखे शब्द
मेरे कानों को भेद रहे थे।







  गुस्से में उठती हुई मैं अपने कमरे की तरफ जाने ही लगी थी कि, कैलाश मेरा रास्ता रोके खड़ा हो गया।









"वैसे गुस्से में गज़ब लगती हो... पता है तुम्हे। " शायद उसका ड्रामा चालू हो गया।









 कैलाश
का हाथ मेरे सर पर बंधे तौलिये की तरफ बढ़ा। लिपटे बालों को तौलिए संग ही
पकड़, वो मुझे कमरे की तरफ खींचने लगा। पूरे रास्ते मैं उसका हाथ  झटकती रही,
पर उसने हाथ नहीं हटाया।ला के कमरे में तौलिया फ़ेंक, टेबल पे पड़े जग का
सारा पानी मेरे सिर पे उढ़ेल दिया उसने।









"ये क्या किया तुमने !!! ईशहहहहह !",  मैं चिल्ला पड़ी।







"तुम्हारा गुस्सा ठंडा कर रहा हूँ।  मैंने किया ही क्या जो इतना चिढ़ रही हो।  बोलो!!!", दरवाज़ा बंद करता हुआ वो बोला।







फ़र्श
पे पड़ा तौलिया लेने मैं लपकी ही थी कि, कैलाश के हाथ से वो दूर जा सरका।
ये खेल शायद कुछ ज़्यादा ही लम्बा खिंचने  लगा है।  मैं जैसे ही तौलिये तक पहुँचती , वो उसे कमरे के दूसरे तरफ फ़ेंक देता। आख़िरकार , मैं अलमारी से
दूसरे किसी दुसरे कपड़े से बालों को सुखाने लगी। मुझे ऐसा करते देख, गुस्से
में उसने तौलिआ मेरे मुँह पे फ़ेंक मारा।







"तुम्हारे
बाल ऐसे खुले ही अच्छे लगते ... सुनो इन्हे बाँधा मत करो। और पानी झटकाते
वक़्त तो..." , कैलाश के शब्द मेरे अतीत के पत्थर से टकराने लगे।








"कितनी बार कहा न तुमको... मुझे नींद से जगाने को ये गीली ज़ुल्फ़ें  मत झटका करो अवनि ... मुझे बिलकुल पसंद नहीं ..." ,तौलिये के अंधेरे में रत्नेश की आवाज़ फिर मेरे कानो में गूंजी।







"सुना ... मैंने क्या कहा !!!", कैलाश मेरे हाथ पकड़ बोला।







"हहह ? हाँ, अभी लाती हूँ चाय ," मैं कमरे का दरवाज़ा खोल बाहर आ गयी।







वो हैरान सा मुझे जाता देख सिर पकड़ बैठ गया।







आज अपनी चाय भी साथ ले जाती हूँ... ये भीगा सिर , ठंडा कर गया। पहुँचते
ही चाय रख मैंने एक कप उसकी  तरफ बढ़ा दिया। जैसे ही मेरे लबों ने कप को
छुआ, कैलाश ने मेरा कप मेरे हाथ से खींच लिया। मुझे घूरता हुआ वो सारी चाय
पी गया एक दम से।अब मुझे उसपे बहुत गुस्सा आ रहा था।  मेरा गुस्सा देख
उसने अपना कप आगे बढ़ा दिया।









" ये लो, जूठी नहीं की
मैंने ... पर तुम्हारी वाली बड़ी मीठी थी ",सुनके एक चाँटा उसके गाल पे
चिपकाने का मन कर रहा था मेरा। पर हाथ कप की तरफ न जाने क्यों बढ़ गए  और मैंने कप की
सारी चाय पी ली।







"वैसे तुम गुस्सा बहुत करती हो ... यहां टिक कैसे गयी , ये हैरानी की बात है। " वह फिर छेड़ते हुए बोला।









मैंने कोई जवाब देना ठीक नहीं समझा।  जितना बोलूंगी , उसने और कुछ ना कुछ बात छेड़ देनी है। इसलिए चुप ही रहना बेहतर है।









"कुछ
कहना था तुमसे ... तुमसे मिलके एक न बात तो पता चली कि तुम यहां अपनी
मर्ज़ी से नहीं हो। तुम अपने पति और बच्चे को मिलना नहीं चाहती क्या? उनकी
याद तो आती होगी। .. दिल नहीं करता क्या तुम्हारा उनसे मिलने को ?"






"हाँ
... मेरा बेटा अब ८ साल का हो गया होगा। ख्वाहिश तो है पर अब ये मुमकिन
नहीं है कैलाश बाबू।मेरे से जुड़ी बातों को ना छेड़ो तो हम दोनों के लिए
अच्छा है। " मैं दोनों कप उठा के बाहर की तरफ की तरफ चल पड़ी। 









"मगर मैं तुम्हारे बारे में सब जानना चाहता हूँ। शायद मैं ही तुम्हे उनसे मिलवा सकू।  भरोसा तो करो। ", कैलकाश अपना दाँव खेल गया।









"भरोसा
ही तो खा गया मुझे कैलाश बाबू ... इस भरोसे के कारण ही यहाँ इस कंजरख़ाने
में पड़ी हुई हूँ। अब डर लगता है किसी पे भी भरोसा करने से। " मैं पलट के
बोली।








"तुम्हे
देख के न जाने कितने सवाल मेरे ज़ेहन में उठते हैं। और उस दिन जिस तरह
तुमने अपने परिवार का ज़िक्र किया, मुझे यही लगा की तुम किसी अच्छे घर की
लड़की हो। यहां ज़बरदस्ती ...... देखो जब इतना बुरा हो ही चुका , अब इससे
बुरा भला होगा? मुझे तो पैसे दे के कोई भी मिल जाती, तुम मिली पर फिर भी मैं तुम्हे सुनना
चाहता हूँ। क्या ये वजह भरोसे के क़ाबिल नहीं?"  कैलाश अपनी बात पे अड़
गया।








"कुछ
पल की ख़ामोशी तूफ़ान के आने का इशारा होता है... अच्छा होगा इस तूफ़ान के बाद
जो बचा है, उसे समेट लें.... वही बहुत है। " मैं दरवाज़े से बाहर आ चुकी
थी।










समझ
नहीं आ रहा मुझे... आज की हकीकत को अपना लूूँ या पुराने दिन के ख्यालों  को 
... पर बात तो एक ही है।  पर कैलाश क्यों कर रहा है ये सब ... क्यों ???






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Tuesday, May 29, 2018

घर वापसी (भाग ३ "छुपे आंसूँ ")


भाग ३  "छुपे आंसूँ "





भाग- १ यहाँ पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_99.html 

भाग -२ यहां पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_25.html





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"आज भी पैसे बर्बाद करने आये हो?", मैं उसे छेड़ते हुए बोली।





"कुछ पुछूँ तो बताओगी?  उस दिन की तरह मूर्ति तो नहीं हो जाओगी?", कप रखते हुए, वो मेरी नक़ल उतारता हुआ बोला।





देखते
ही मेरा लबों से हँसी फ़ूट पड़ी।  इतना हँसी इतना हँसी कि आँखें आंसुओं से
भर गयी। मेरा हँसना कब रोने में बदल गया, मुझे भी पता न चला।





और कब उसके कंधे पे मेरा सिर और उसकी बाहें मुझसे लिपटी.... नहीं पता।  बस दरवाज़े को बंद करता, इक ज़ोर से धड़ाम की आवाज़ ने  हमे चौंका दिया। और अम्माजी बाहर से चिल्लाती हुुई निकली, "कम- से- कम ई दरवज्जा लगाय लेना था , चिटकनी नहीं का ... "





झट से उससे बाहें छुड़ा, मैं कमरे के दुसरे ओर जा पहुंची।





आज ये शाम  भी न जाने, कब दफ़ा होगी। खीझ सी होने लगी है इस बंद कमरे में।







"मेरा नाम नहीं पूछा तुमने अब तक। सोचा खुद ही बता दूँ। मेरा नाम कैलाश है। तुम्हारा क्या है?" ये बड़ा अजीब तरीका जान- पहचान  का।





" रिद्धिमा। " मैंने झट्ट से बताया।



"रिद्धिमा ? तो वो लड़की तुम्हे अवनि क्यों बुला रही थी?,"  उसने अपना शक ज़ाहिर किया।





"हाँ , रिद्धिमा ही है... अवनि तो.... " मैं कहते कहते चुप हो गयी।



.

"वैसे
तुम्हारा असली नाम अवनि ही है ... हैं न ?" मुझे आज ही तुम्हारा असली नाम
पता लगा, जब तुम मुझे उससे निपटवाने का बोल रही थी। " शायद अब छेड़ने की
बारी उसकी थी।





"वो... अच्छा ... ह्म्म्मं " कुछ सूझ  ही नहीं रहा था कि क्या बोलूँ।  याद कर शर्म सी आ रही थी।





"तुम यहाँ कब से हो? ", वो एकाएक  पूछ बैठा।





"माफ़ करना, अम्माजी ने मना किया है बताने को। ", मैंने उसे वहीं रोक दिया, उसी के सवालों में।





"तो
उस दिन .... उस दिन क्या हो गया था तुम्हे? तुम्हारा पति ... तुम्हारा
बच्चा ... उस दिन क्यों इस अजनबी को बताया था तुमने ? उस दिन किसने पूछा था
तुमसे ? बोलो !!!", वो मेरे पास आ मुझे झिंझोड़ते हुए पूछने लगा।




"तुम्हे
मुझसे क्या?  २ या ३ घंटे के लिए किराए पे मिली हूँ तुम्हे ... तुम्हे
मेरी गुज़री ज़िन्दगी से क्या? बताऊँ  भी, तो क्या कर लोगे तुम ? ३ सालों में
कुछ नहीं कर पायी मैं ... तुम  क्या करलोगे ? ",मैंने उसकी बाहों को खुद
पर से ज़ोर से झटक दिया।





मेरा सब्र गुस्सा बन
के फूट पड़ा।  आँखों के आंसू उसे नहीं दिखाना चाहती थी मैं। ... सो फिर
पाषाण बन खड़ी रही।  आँख खुली तो वो जा चुका था।






 अम्माजी भागी- भागी मेरे कमरे की तरफ आ रही थी, न जाने क्या हुआ आज, कि वो सकपकायी सी लग रही थी। 




"अवनि.... का कहा तूने उस छोरे को? जल्दी निकल लिया वो ... बोला कल फिर आएगा।  अच्छा मुर्गा फांसा री  तूने.... ", उनकी बातों  में पैसे मिलने की ख़ुशी ज़्यादा दिख रही थी।





"मगर मैं नहीं मिलना चाहती उसे दोबारा ... मना कर देना आप।  कह देना मैं भाग गयी यहां से। " मैं खीझ के बोली और अंदर आ के दरवाज़ा बंद कर लिया।









अम्माजी हैरान- परेशान बुलबुल से मामला पता करने चली गयी।







शाम बीत चुकी थी... बारिश भी तेज़ हो गयी...मेरी ज़िन्दगी की बारिश भी तो नहीं रुकी पिछले ३ सालों से...शायद ये ही रुक जाए।





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Friday, May 25, 2018

घर वापसी ( भाग -२ "तनहा है खुद तन्हाई ")


भाग-२  "तनहा है खुद तन्हाई "









भाग- १ यहाँ पढ़ें https://www.loverhyme.com/2018/05/blog-post_99.html 












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रात हो चली.... मगर आँखों में नींद नहीं।  आज ४ दिन हो गए इसी तरह।



 दिमाग के घोड़े चल चल के थक गए हैं... शायद।



३ साल हो गए यहाँ मुझे, अम्माजी के यहाँ ... मगर कोई पैसे दे के तन्हाई भर गया, ये अजीब वाक़या पहले कभी नहीं हुआ...



लोग तो इन बंद चारदीवारों में खुद के बोझिल होते मन को   किसी और के जिस्म पे लादने भर आते।  आखिर क्यों?



मेरे दिमाग में इतने सवाल, पर कोई जवाब नहीं।  शायद आज नींद भी नहीं आएगी।  बिस्तर भी काट रहा ... बैठ के खिड़की से खाली आसमान ही देख लेती हूँ।



"दीदी
... सो जाओ ना ... अम्माजी गुस्सा करेंगी अगर सुबह आँखें सूजी हुई देखी
उन्होंने ... "



वीना के खर्राटे शुरू हो चुके थे ... और मैं.... शायद मेरी
आँखें खुल चुकी थी।





ज़िन्दगी कितनी अजीब है ना ... जब सब देती है तो अकल पे पत्थर पड़ जाते हैं और....  जब सब समझ आ जाए तब तक हाथ बंध चुके होते हैं।



अतीत की परछाईयाँ उस हिलते परदे के पीछे से लुका- छिपी खेलने लगी। 



काश
उस दिन मैं, यूँही गुस्से में घर से न निकली होती ....  काश मैं उस अजनबी पे
भरोसा ना करती..... मेरा  पर्स चोरी होने पे मैं आखिर करती भी क्या?



 वापस
घर आने के लिए, अगर उस इंसान की मदद न लेती...  तो शायद इस अंधी खाई में आज
नहीं होती मैं।  न जाने क्या सूंघा दिया था उसने मुझे उस चलती गाड़ी में, कि जब होश आया तो मेरी दुनिया ही पलट चुकी थी।






रत्नेश
को भी क्या खबर कि  मैं घर से निकली हूँ.... वापस कब आऊंगी। पर क्या
उनहोने मुझे ढूंढा भी? आँखों से टपकते आंसू ,यहाँ किसी की परवाह को ताकते
हैं, पर शायद यहाँ मेरा कोई अपना है ही नहीं।






रात गुजरने को है शायद.... शायद!


















शाम
गहराने वाली हो गयी.... बारिश अगस्त के महीने को भिगोने वाली होती है। 
रत्नेश ऑफिस से आ चुके।  अपने बेटे पुनीत के अलावा कोई और अब नज़र भी नहीं
आता उनको। मेरी तरफ तो तभी देखेंगे, जब पुनीत सो जायेगा.... मन्नतों के बाद
के बच्चे सिर-आँखों पे बैठाये जाते हैं।



 "कभी मेरा भी पूछ लिया करो रत्नेश ....  मैं भी इसी घर में रहती हूँ !", मैंने नाराज़गी जताते हुए कहा। 



"अरे
मैडम ! बच्चे को पापा चाहिए  ... अभी उसका टाइम...  आप १० बजे के बाद
मिलिए... आपकी अपॉइंटमेंट फिक्स है। " हँसते हुए वो कह गए।





"अभी हूँ ना
तुम्हारे पास.... इसीलिए इतरा रहे हो... किसी दिन जब मैं तुमसे दूर हो जाउंगी ना .... तरसोगे मुझे देखने को जब, तब पूछूँगी की अपॉइंटमेंट लोगे या दोगे ?",
मैं गुस्से में कहती हुई किचन में जा घुसी।



"अवनि ओ अवनि.... "मेरा नाम पुकारती आवाज़ ने मेरे ख्यालों की गाड़ी को रोक दिया। 





"तेरा वो ... आ गया ... अरे वही , उस दिन वाला .... चाय वाला !" बुलबुल खिड़की से चिढ़ाती हुई बोली।



"आज
तू ही निबट उससे ... देख मेरा कि मैं यहाँ हूँ , बताने की ज़रूरत नहीं ,ठीक है ?" बोलते ही जो मैं पलटी, तो उस अजनबी को मेरे पीछे ही खड़ा पाया।  मेरी हालत 'काटो तो खून नहीं'
जैसी हो गयी, उसे अचानक से देख के।



"अच्छा? तो तुम यहाँ नहीं हो क्या?" , लबों पे मुस्कान लिए,खुद के बालों में हाथ फेरता हुआ वह बोला।



"चाय ??? अभी लाती हूँ। ", कह के मैं भाग पड़ी।



बुलबुल को दूसरे कमरे के सामने पा के, उसकी चोटी अच्छे से खींची मैंने।



"कम से कम बोल ही देती कि महापुरुष मेरे पीछे ही खड़ा है ... अरे इशारा ही कर देती ....तेरे भेजे में अकाल पड़ गया था क्या? "



"ओह्ह्ह... इतना गुस्सा मत करो दीदी, चाय भी तुम्हारे आगे ठंडी लगेगी। " बुलबुल छेड़ती हुई पानी भरने लगी।



  चाय बनाते- बनाते मन में कुछ ख्याल आया ... नाम क्या बताया था इसने अपना ? बताया भी था? शायद नहीं। पूछ लूँ क्या? ना ...



कमरे में पहुंच के देखती हूँ तो, वो खिड़की से बाहर कुछ देखने में मसरूफ है।



"सोचती ही रहोगी कि चाय भी दोगी ?", ख्यालों से निकलता हुआ वो बोला।    






"हाँ, दे रही हूँ।" हाथ में कप लिए मैं बोली।






                  शायद चाय के तरह हमारी मुलाक़ात भी थोड़ी और मीठी हो रही थी





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Saturday, May 19, 2018

घर वापसी ( भाग - १ "सब बिकता है")


 भाग - १  "सब बिकता है"




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ज़िन्दगी न जाने किस क़र्ज़
का ब्याज मांग रही है? कुछ देर तन्हाई भी नहीं मिलती और... एक नयी सुबह रात की
तरह आँखों -आँखों में गुज़र जाती है।



अम्मा एक नया ग्राहक लायी हैं। मुझे उसे खुश करने का कह गयी.





आईना भी जैसे बेपर्दा होके, मेरे जिस्म पे पिछली रात के रिसते हुए ज़ख्मों पे हँस रहा हो।



"
ये क्या? मांग सूनी क्यों राखी तुमने? और गला.... अरे मंगलसूत्र पहना करो
न!  इस तरह सादी मत रहा करो। " रत्नेश की आवाज़ कानो में घुल रही थी।



बिख़री
यादों की अलमारी कभी सवरती  नहीं।  उनपे चढ़ी धूल कभी धुंधली नहीं होती।



ज़ोर की आवाज़ ने मेरी यादों की अलमारी आखिर कब बंद करवा दी पता ही न चला।



"दीदी दरवाज़ा खोलो... अम्माजी बोली बस आधा घंटा और... तैयार हो गयी क्या? दीदी?" वीना बाहर  दरवाज़ा फोड़ रही थी।




" बस हो ही गयी ... सुनना ... कुछ खाने को ला दे।  भूख लग आयी। ", मैं कह के गुसलखाने में तौलिये संग चल पड़ी।



ये बदनाम गली न जाने कितने नाम वालों को बाहें खोल बुला रही है ... "



बदनाम???"



एकाएक  मेरी हँसी फूट पड़ी।






तैयार
होकर, कुछ फ़ीकी सी मुस्कान लिए, फटाफट नाश्ता ठूस ही रही थी कि... लगा
जैसे कोई मुझे घूर रहा है।  आँखों के कोनो से देखा तो मालूम पड़ा कि सच में,
एक जोड़ी आँखें मुझे दरवाज़े के उस पार से निहार रही हैं।  खुद को पकड़ा हुआ
महसूस कर,वो मुस्कुराता हुआ अंदर आ पहुँचा और कुर्सी पे बैठते  हुए बोला
," आराम से खा लो... मुझे कोई जल्दी नहीं। "






पहली बार किसी ने इतना इत्मीनान दिखाया।





"चाय पिएंगे?" मैंने पूछ लिया।





"हाँ ! तुम बनाओगी ?" ज़वाब के साथ एक और सवाल उसने मेरी तरफ भेज दिया।





अतीत
के गलियारे से इक आवाज़ कानो में तफरी करने लगी... अवनि... चाय पिलाओ
ज़रा........ हाँ अपने हाथों की ! सुगनी से मत बनवाना। " रत्नेश फ़िर आज
गूँज रहा था...




"अभी
लाती हूँ... ", मैं उठ के बाहर आ गयी। पहली बार किसी ने गुज़ारिश की यहाँ
... इस जगह, जहाँ हर कोई कुछ देर गुज़ारने आता और मेरा सब कुछ ले जाता।





सोचते-
सोचते चाय उबल गयी, कप में भरते ही अतीत की खिड़की से रत्नेश की आवाज़ आयी,"
अवनि ... इलाइची डाली कि नहीं?" और मुँह से निकल पड़ा खुद-ब-खुद .... हाँ
डाली है।






जाते ही चाय मेज़ पे रख, मैं उस अजनबी के चेहरे को देखने लगी...



सुर्र-
सुर्र की आवाज़ कर, वो रत्नेश जैसे ही चाय की चुस्कियाँ भर रहा था ... मेरे
मुस्कुराने पे, झल्लाये बिना ही वो पूछ बैठा," इत्ती अच्छी बनाती हो... चाय
की टपरी ही खोल लेती... इस गलत काम में पड़ने की क्या ज़रूरत थी?"



मेरा कोई जवाब न पाकर, वो मेरे पास आ पहुँचा।




"किस्मत
ख़राब थी मेरी... इससे ज़्यादा क्या कह सकती हूँ मैं... भरा-पूरा  घर था मेरा ,
पति , बच्चा, बस एक पल के गुस्से ने सब बर्बाद कर दिया। पर आपको इससे कोई
मतलब नही... अपना काम करो और निकलो !"



मेरी जहन्नुम सी ज़िन्दगी का
दुःख- दर्द और तक़लीफ़ गुस्से में फूट पड़ा।  मुँह फेर, उससे दूर... मैं खुद को शांत करने
की कोशिश में आँखें बंद कर पाषाण्ड सी खड़ी रही।



कुछ
पल कोई आवाज़ नहीं आयी ... फिर कानों के पास हलकी की ख़ुशनू महसूस होने
लगी।  आँखें खोल देखा ,तो उस अजनबी को अपने करीब पाया। कुछ देर क लिए मैं
झेंप सी गयी।



"तुम सच में बहुत सुन्दर हो... क्या किसी ने तुम्हे बताया कभी? " वो अचानक से बोल पड़ा.



" हाँ ! पता है.,... तभी तो आप जैसे यहाँ तशरीफ़ लाते हैं। वरना हमसे कोई और क्या काम आपको!" गुस्सा उबलने लगा मेरा।



" तुम्हे जानने की हसरत है... पाने की नहीं। " शायराना लहज़े में कह के, वो कुर्सी पे जा बैठ गया।



अजीब इंसान है।  कभी ऐसा हुआ ही नहीं, कि कोई इतने पास आ के दूर गया हो।  समझ ही नहीं आ रहा कि हो क्या रहा है।




"आपके पैसे ख़राब हो जायेंगे। " मैंने याद दिलाया।



वो मुस्कुराता हुआ बैठ मुझे देखता रहा।



"सुनो... मुझे अंदाजा है, कि तुम्हे यहाँ ज़बरदस्ती रखा गया है। तुम चाहो तो मैं तुम्हारी मदद कर सकता हूँ.... बोलो !" उसने अपनापन जताते हुए कहा।



"किस्मत से लड़ के कुछ नहीं होता साहेब...जहाँ जितनी लिखी है, इंसान को वहीं आना पड़ता है। "मैं सर झुका के बोली।








खुला
दरवाज़ा देख वीना आ गयी और मज़ाकिया लहज़े में जानने की कोशिश करने लगी, कि
दरवाज़ा बंद क्यों नहीं हुआ अब तक।  मुझे इशारा कर वो वहाँ से निकल
गयी...








आखिर पैसों में ही तो सब कुछ बिकता है... इंसान, इज़्ज़त ... सब कुछ !





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Friday, May 18, 2018

कब तक रूठोगे भला?









दस बार उठे होंगे हाथ तुम्हे कुछ लिखने को,

पर दिल थम जाता है तेरा नाम ही लिखते... सुन रहे हो!



कोई लफ्ज़ लिखा जाता नहीं, स्याही शर्मा सी जाती है,

कागज़ को भी जैसे गुदगुदी हो जाती है.



हँस लेती हूँ सोच के तुम क्या आगे कहोगे?

मेरी नादानियों पे थोड़ा तंज़ कुछ तो कसोगे.



फ़ोन इक तरफ रख के ज़ोर से हँस लेती हूँ,

कुछ दिन और यूँ रूठी हुई रह लेती हूँ.



दो बार तो तुमसे फ़िर मुड़ मुलाक़ात की है,

इस तीसरी बार थोड़ा इत्मिनान रख लेती हूँ.



इस ख़ामोशी में तेरी जली-कटी फिर सुनलेती हूँ,

क्या करुँ ... तेरी बेरुख़ी सह लेती हूँ.



कुछ सुनने से सुनाना भला?

अरे कहो भी कुछ... कब तक रूठोगे भला?







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Life is a withering winter

 When people ask me... do I still remember you? I go in a trance, my lips hold a smile and my eyes are visible with tears about to fall. I r...