इक ख़याल......
अपनों में अजनबी कितने??
अजनबियों में अपने कितने?
ख़याल ये रख मन -
मन में सवाल कितने?
सवालों के जवाब कितने ?
जवाबों के हिसाब कितने?
आज वक़्त गुज़र भी गया -
तो ये हिसाब-ए -इंतज़ार कितने ?
इंतज़ार का आलम
देखो-कितना लम्बा है?
दो गज़ की दूरी है,
और सालों का अँधेरा है.…
ज़िंदा सभी हैं...
ख्यालों के समन्दर में।
उठती लहरे हैं
ख्याल ही जैसे ज़िन्दगी हो।
हर ख़याल में क़ाबिज़ ,
अफसानों का इक सवेरा है।
देखना है अब तो.....
कब छटता ये अँधेरा है।
अंधेरे को अब रोशिनी का सहारा है…
जैसे कश्ती को लहरों का किनारा हैं
मौत किनारे पर ज़िंदगी को देखे यूँ
वक़्त लहर बन ज़िन्दगी को धकेले यूँ।
ज़िन्दगी जिंदा रहने की जिद है.....
मौत तो एक बेपरवाह नींद है।
क्या आलम हो उस ज़िंदगी का.....
मौत से ना जिसको कोई खौफ हो।
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