वक़्त के तहखाने में ,
सन्दूक यादों के रखती हूँ।
कुछ में खुशियाँ , कुछ में गम ,
कुछ में सपने रखती हूँ।
जब चाहूँ तो खोल इन्हें,
इक टुकड़ा मैं उठाती हूँ।
उस पे लिखा नाम तेरा
भीगी आँखों से पढ़ती हूँ।
फिर मुस्काके वो टुकड़ा
मैं वापस उसमें रखती हूँ।
खामोश निगाहों के दामन से ,
सपनों को मैं ढकती हूँ।
जाने कब गुम जायें ये
इन्हें खोने से मैं डरती हूँ।
इक टुकड़ा हँसी का,
आज भी खिलखिलाता है।
जब खोलूँ वो पाती,
तो याद तुम्हारी दिलाता है।
लफ़्ज़ों में भी जैसे तुम्हारी
आवाज़ सुनाई देती हो।
कभी कभी तो ऐसा लगे
तुम यहीं कहीं मेरे पास हो।
हर लम्हा मैं तनहा ,
फिर भी जैसे तुम साथ हो।
इक टुकड़ा आंसुओं में,
हरदम भीगा रहता है।
सीधे सादे आधे वादे ,
चुभते मन के कोने में।
नींदें छोड़ जो सपने देखे,
खुली हुई उन आँखों से।
आज भी मैं उन सपनों को
लगी हुई सुलझाने में।
फिर हँसकर उन यादों को ,
दफ़न कर मैं आती हूँ।
वक़्त के तहखाने में,
संदूक यादों के रखती हूँ।
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